नवरस का मानस
निशा का संकोच हूँ मैं और नदी की खिलखिलाहट भी । रवि का तेज हूँ मैं पीपल -छांव की उधारता भी । योद्धा का अनुशासन हूँ मैं और दोराहे का उलझन भी । हाँ, भविष्य का भय हूँ मैं , वैश्या की अरुचि भी हूँ और संत का समर्पण भी । रूबरू हुए मुझसे तुम हर कही, पहचाना किन्तु अब तक नहीं । विश्वरूप दर्शित हुआ मैं , तुझसे इस तरह परिचित हुआ मैं । यूँ तो जीवन के हर रूप में हूँ मैं, पर खुद को पाता तुझमें हूँ मैं । तू पूँछ ले , तुझमें हैं एसा क्या गुण ? नवों रस के समर्थ, हे मानस! तू बना भिन्न !