नवरस का मानस
निशा का संकोच हूँ मैं
और नदी की खिलखिलाहट भी ।
रवि का तेज हूँ मैं
पीपल-छांव की उधारता भी ।
योद्धा का अनुशासन हूँ मैं
और दोराहे का उलझन भी ।
हाँ, भविष्य का भय हूँ मैं ,
वैश्या की अरुचि भी हूँ
और संत का समर्पण भी ।
रूबरू हुए मुझसे तुम हर कही,
पहचाना किन्तु अब तक नहीं ।
विश्वरूप दर्शित हुआ मैं ,
तुझसे इस तरह परिचित हुआ मैं ।
यूँ तो जीवन के हर रूप में हूँ मैं,
पर खुद को पाता तुझमें हूँ मैं ।
तू पूँछ ले , तुझमें हैं एसा क्या गुण ?
नवों रस के समर्थ, हे मानस! तू बना भिन्न !
और नदी की खिलखिलाहट भी ।
रवि का तेज हूँ मैं
पीपल-छांव की उधारता भी ।
योद्धा का अनुशासन हूँ मैं
और दोराहे का उलझन भी ।
हाँ, भविष्य का भय हूँ मैं ,
वैश्या की अरुचि भी हूँ
और संत का समर्पण भी ।
रूबरू हुए मुझसे तुम हर कही,
पहचाना किन्तु अब तक नहीं ।
विश्वरूप दर्शित हुआ मैं ,
तुझसे इस तरह परिचित हुआ मैं ।
यूँ तो जीवन के हर रूप में हूँ मैं,
पर खुद को पाता तुझमें हूँ मैं ।
तू पूँछ ले , तुझमें हैं एसा क्या गुण ?
नवों रस के समर्थ, हे मानस! तू बना भिन्न !
Comments
@polu.. yeah at the end of it, i also thought it was like a textbook poem :P